Monday, 15 June 2009

ऑस्ट्रेलिया का पिछड़ापन...

ऑस्ट्रेलिया में तमाम आश्वासनों और दावों के बावजूद भारतीयों के खिलाफ नस्ली हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही हैं। मेलबर्न शहर में एक और भारतीय छात्र पर हमले और नस्लभेदी टिप्पणियों की बात सामने आई हैं। नस्ली नफरत के ताजा शिकार नई दिल्ली के सनी बजाज बने हैं। ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर हो रहे नस्लीय हमलों से पूरा राष्ट्र चिंतित है। छोटे-बड़े लगभग सभी सस्थाओं ने इस नितान्त शर्मनाक घटना की भर्त्सना की है। वस्तुतः आज हम अपने ऋषि-मुनिओं की वाणी "वसुधैव कुटुम्बकं" को चरितार्थ करते हुए जी रहें हैं जो आज की जन-प्रचलित भाषा में 'ग्लोबल विलेज' की अवधारणा के रूप में जाना जाता है। इस समय भारत ही नहीं वरन विश्व के अन्य तमाम देशों के लोग भी शिक्षा, कारोबार आदि के लिये पुरी दुनिया में बेरोकटोक भ्रमण कर रहे हैं।

शिक्षा का कारोबार ऑस्ट्रेलिया का तीसरा सबसे बड़ा कारोबार है तो उच्च शिक्षा के लिये भारतीय युवाओं के पसन्दीदा देशों में से एक है भी ऑस्ट्रेलिया। गतवर्ष लगभग सत्तानबे हज़ार भारतीय युवाओं ने वहाँ प्रवेश लिया और इससे ऑस्ट्रेलिया को हजारों डॉलर की कमाई भी हुई। इस तरह भारतीय छात्र ऑस्ट्रेलिया जा कर वहाँ की अर्थ व्यवस्था में योगदान दे रहे है तथा वहाँ की शैक्षिक संस्थाओं की वित्तीय हालत को मजबूती भी प्रदान कर रहें हैं। भारतीय छात्रों ने वहाँ जा कर के शिक्षा का स्तर भी ऊँचा कर दिया।

भारतीय युवक काम को ही पूजा समझते हैं। इसलिए नियोक्ता कम्पनियाँ ऑस्ट्रेलियाई युवकों के बजाए भारतीय प्रतिभाओं को काम देना पसन्द करती है। ऑस्ट्रेलियाई छात्रों को लग रहा है कि भारतीय छात्र उनके यहाँ आकर के उनसे भी आगे निकलते जा रहे हैं, लेकिन उनका यह सोंचना गलत है क्योंकि यदि इस तरह के हमलों के कारण लोगों ने ऑस्ट्रेलिया जाना ही बन्द कर दिया तो उनकी शिक्षा की ही नहीं वरन आर्थिक प्रगति भी रुक जायेगी।

अब ऐसी परिस्थितियों में भारतीय छात्रों का विश्वास ऑस्ट्रेलियाई पुलिस पर से उठ सा गया है। फेडरेशन ऑफ इंडियन स्टूडेंट्स ऑफ ऑस्ट्रेलिया ( FISA ) ने अपना विरोध ऑस्ट्रेलिया सरकार से भी दर्ज कराया है परन्तु वहाँ की सरकार द्वारा पूरी सुरक्षा देने के आश्वासन के वावजूद भी नस्लीय हमले रुक नहीं रहे हैं, वैसे नस्लीय दुर्भावनाओं से ग्रसित हमलों से यही सिद्ध होता है कि भले ही ऑस्ट्रेलिया एक विकसित देश है परन्तु वहाँ के लोग विचार धारा में कितनें पिछडे हुए हैं ?

वैसे नस्लीय हमलों की घटना ऑस्ट्रेलिया में नई नहीं है, याद करें 1990 के दशक की वो घटना जब ऑस्ट्रेलियाई नेता 'पालिन हेनसन' की नस्लीय टिप्पणियों के कारण एशिया भर के लोग नाराज़ हो गए थे।

Tuesday, 26 May 2009

यह क्या हो रहा है ...?


यह क्या हो रहा है...? किसका गुस्सा किस पर उतारा जा रहा है? जिस शहर में रहते है वहीं पर उपद्रव करना, सरकारी सम्पत्ती को नुकसान पहुँचाना, लोगों के घरों के दरवाजों को तोड़ देना, गलियों में लगे बल्ब और ट्यूबराडों को नष्ट करना, पेट्रोल पम्प, ए टी एम आदि को क्षतिग्रस्त करना, किसी अच्छे-भले आदमी की कार को जला कर राख कर देना ही क्या धार्मिकता है? कितने शर्म की बात है यह ! राष्ट्र की सम्पत्ति नष्ट हो रही है। बेगुनाह लोग मर रहे है और राजमार्गों पर यातायात दुर्लभ हो रहा है। ऐसे में राज्य सरकार कर क्या रही है? प्रदेश में कानून व्यवस्था बनाये रखना, अशान्ति की स्थिति में त्वरित कार्यवाही करके पुनः स्थिति को सामान्य करना राज्य सरकार का ही दायित्व है मगर किसी समुदाय विशेष के हितों का नारा लगवा कर समाज को धर्म के नाम पर बाँटने वाले ये "नेतागण" भारत के नागरिकों का हित नहीं सोंच पाते हैं तो फिर जनता-जनार्दन इन पर विश्वास कैसे करे? मैंने अपनी आखों से देश का विभाजन का दौर तो नहीं देखा परन्तु अहसास करता हूँ कि कुछ ऐसा ही रहा होगा! लगता है कि मैं साठ-बासठ साल पहले के युग में पहुँच गया हूँ या फिर किसी जंगल में। वैसे कहते हैं कि 'जंगलराज ' के भी कुछ कायदे -कानून होते हैं परन्तु यहाँ तो ..........

क्या मेरे देश को किसी कि नज़र लग गयी है ?

Sunday, 17 May 2009

जय हो मतदाता ...! जय हो लोकतंत्र .....!!


लोकतंत्र की जीत पुनः हुई। एक बार पुनः मतदाता ने सिद्ध कर दिया कि लोकतंत्र में राजा वही है। सिद्ध कर दिया कि लोकतंत्र में वोट की चोट भी घातक होती है। जो भी जनता की अवहेलना करता है, उसकी हवा निकाल देनें में 'लोकतंत्र का राजा' अभी भी सक्षम है। मतदाता नें सिद्ध कर दिया कि "हम भारत के लोग" समझदार हैं तथा सही समय पर सही निर्णय लेना जानते हैं। इस जनादेश का पूर्वानुमान लगानें में बड़े -बड़े राजनीतिक विश्लेषक ( और तथाकथित ज्योतिषी भी ) धराशाई हो गए। ऋषिओं ने सत्य ही कहा है " नृपस्य चित्तम् ..... दैवो न जानति कुतो मनुष्यः ।।"

इस जनादेश से मतदाता ने क्षेत्रीयता पर भी लगाम कसा। जयललिता, चन्द्र बाबू नायडू, लालू प्रसाद, रामविलास पासवान जैसे नेता अब किंग-मेकर की स्थिति में नहीं रहे . अब जनता स्वयं ही किंग-मेकर भी है और किंग तो है ही। वस्तुतः छोटे दलों का दम्भ ही उन्हें ले डूबा। मायावती का दर्प भी विदीर्ण हो गया ( अब इस लोक सभा में वह प्रधान - मंत्री बनने की शर्त नहीं थोप सकतीं )। वामपंथियों ने भयादोहन करनें की राजनीति कर के मतदाता का विश्वास खो दिया। जनता ने यह भी सिद्ध कर दिया कि वह लालकृष्ण आडवानी को न तो मजबूत नेता मानती है और न ही भारतीय जनता पार्टी के द्वारा निर्णायक सरकार चला पाने पर उसे तनिक भी भरोसा है।

कांग्रेस ने "जय हो" के नारे के साथ अपनें चुनाव अभियान का श्रीगणेश किया था अब संप्रग को चाहिए कि वह इस जनादेश का आदर करे और विकास के पथ पर त्वरित गति से राष्ट्र को आगे बढाती जावे। राजनीति के नाम पर जनता से किसी भी प्रकार की गडबडी से बचे तभी ठीक रहेगा अन्यथा वोट की चोट घातक ही नहीं संघातक भी होती है। याद रहे - जय मतदाता, जय लोकतंत्र, जय हिन्द ...!